Thursday, August 18, 2011

. . . . . . . . . . .तुम और तुम्हारी खिलखिलाहट


तुम और तुम्हारी खिलखिलाहट, 
और कुछ खामोश पल, 
जैसे सर्दियों में खिली धूप,
और जगजीत की पुरानी ग़ज़ल,

इन्हीं सर्दियों में हम छज्जे पे खड़े चाय की चुस्कियां ले रहे हों, 
और तुम टीवी पर "छज्जे छज्जे का प्यार" देखो, 
दूर कहीं रेडियो पर "सिलसिले" के गीत चल रहे हों, 
और तुम यूँही मेरी तरफ एक बार देखो,

फिर इसी बीच वो तुम्हारा फिर से  बेवजह खिलखिलाना, 
मेरा अगली चुस्की को रोकते हुए तुम्हें देखना,
कुछ  सोचना,
और कहना,
"कि थोड़ी खिसकी है"

फिर अगली चुस्की के साथ,
वो खिलखिलाहट, वो खामोश पल,
वो खिली धूप, वो पुरानी ग़ज़ल, 
को पी जाना,
और मन ही मन ये सोचना,
"कि ज़िन्दगी हसीन है" 

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