Wednesday, June 1, 2011

बस! नहीं कुछ और देर!

बस!
नहीं कुछ और देर!
ख्वाब है, 
अपना ही है,
ऐसे न मरने देंगे!
ठण्ड से बचने को हम,
छप्पर न जलने देंगे!
बस, जरा कुछ और देर!

किसने कहा था चलने को तपती जमीन पर,
अब भुगतो,
छालों की तरफ मत देखो,
कुछ कदम बाकी हैं,
उनको भी चल लो,
बस उस अगले मोड़ तक!
बस जरा कुछ और देर!

सब्र तो करो, 
जगजीत ने कहा था 
"लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है" 
उसे सुनो 
चाहो तो हँस लो,
पर फिर चलो!
बस, जरा कुछ और देर!

कितने मकान खाली थे,
हर तीसरे कदम पे,
लेकिन तुम्हें तो घर चाहिए था,
वो भी जहां दूर तक मकान न हो,
चाह तुम्हारी थी,
विश्वास तुम्हारा था,
अब गिरो, पड़ो, उठो, संभलो,
और फिर चलो!
बस, जरा कुछ और देर!
बस! नहीं कुछ और देर!
बस नहीं!!

इसी शहर के एक कोने में

इसी शहर के एक कोने में, कुछ दिन पहले आग लगी थी

उसी आग में झुलस गए थे कुछ घर और कुछ सपने!


वो कुछ लोग थे, जो रेल की पटरी और कचरे के ढेर के बीच रहते थे,
न तो हमने ही कभी उनके होने को माना,
ना वोही अपने होने का सुबूत लिए फिरते थे,
वो तो बस पीपल के सूखे पत्तों से थे,
जो होते तो हर जगह हैं, पर दिखते बहुत कम हैं,
इसी शहर के एक कोने में कुछ दिन पहले आग लगी थी!


झोपड़ियों के जलने के तो खँडहर भी नहीं बनते,
रह जाती है बस कुछ उजड़ी सपाट स्याह जमीन,
कुछ जली ईटें, अधजले कपडे, एक दबी आह,
और कुछ बच्चों के खेलने के लिए खुला मैदान,
इसी शहर के एक कोने में कुछ दिन पहले आग लगी थी!


हमारे गाँव में तो पड़ोस की अम्मा की आधी धोती जलने पे पूरा गाँव आता था,
चंदा करके अम्मा को दो-२ धोती दिलाता था,
अम्मा चार साल तक वो आधी धोती के जलने की कहानी सुनाती थी,
और जब धोतियाँ ख़तम होने लगे,
तो वोही आधी अधजली धोती फिर से जलाती थी,
पूरा गाँव फिर से धोती के जलने का शोक मनाता था,
और दो नयी धोतियाँ अम्मा को फिर से दिलाता था,
लेकिन इस शहर का तो रिवाज़ ही अलग है,
यहाँ किसी को सहारा दोगे, तो वामपंथी कहलाओगे,
और वो सामाजिक कार्य जो हमारे यहाँ हर कोई हर रोज़ करता है,
यहाँ एक दिन १५ मिनट कर दोगे तो सोशल एक्टिविस्ट बन जाओगे,
बहुत ही खुश्क है ये शहर,
जरा सा कुरेदो, तो खून निकल आता है,
बहुत सतही है जीवन यहाँ,
जरा सी गहराई में कुछ ना नज़र आता है,
बस यहीं, आस पास ही,
इसी शहर के एक कोने में कुछ दिन पहले आग लगी थी!