Sunday, March 27, 2011

पूर्ण तो कुछ भी नहीं है

पूर्ण तो कुछ भी नहीं है, पूर्ण तो कुछ भी नहीं है!


आकांक्षाओं के ढेर जो पाले थे हमने,
वास्तविकता के धरातल पर वो ओंधे मुंहू पड़े हैं,
और कुछ कराहते से पूछते हैं,
क्या पूर्ण कुछ भी नहीं है?

वो जिसे हम विशुद्ध भाव प्रवाह समझे,
वो जिसे हर कोई मेरा वहम, मेरी भूल समझे,
पर इन दोनों ही विचारों में कही कोई कमीं है,
पूर्ण तो कुछ भी नहीं है!

अभिव्यक्ति भी अभाव का प्रतिबिम्ब ही है,
जो जोड़ता असमांतर रेखाओं को एक बिंदु ही है,
क्या पूर्णता एक अलौकिक बिंदु है, या वो भी नहीं है,
पूर्ण तो कुछ भी नहीं है!

क्या सत्य एक सोच का विकृत सा रूप है,
कमजोरियां छिप जायें तो दैवीय स्वरूप है,
आधा अधुरा सत्य है, सत्य येही है,
पूर्ण तो कुछ भी नहीं है!

आज जब आधा सफ़र भी हो चुका है,
ना ही पथ का और ना गंतव्य का कोई पता है,
तब में समझा सूफी के दर्शन का मतलब,
पूर्ण तो कुछ भी नहीं है, पूर्ण तो कुछ भी नहीं है!